हिन्दी पत्रकारिता के सूर्य कानपुर के जुगुल किशोर शुक्ल

(हिंदी पत्रकारिता दिवस – 30 मई)

उदंत मार्तंड और कानपुर के जुगुल किशोर शुक्ल की अमर गाथा

(श्रीधर अग्निहोत्री)

हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में यदि किसी एक प्रकाश स्तंभ का नाम लिया जाए, जिसने इस पूरी परंपरा को दिशा दी, तो वह नाम है ‘उदंत मार्तंड’ — हिंदी का प्रथम समाचार पत्र। और उस युगांतकारी प्रयास के प्रणेता थे पंडित जुगुल किशोर शुक्ल। यह महज एक समाचार पत्र की बात नहीं थी, यह भारतीय भाषाओं की अस्मिता और स्वाभिमान की पहली दस्तक थी। यह स्वराज के स्वप्न की पहली अनुभूति थी, जिसे एक साधारण लेकिन साहसी मनुष्य ने अपनी कलम के बूते आकार देने की ठानी।
उन्नीसवीं सदी का भारत अंग्रेजी सत्ता के शिकंजे में था। अंग्रेजों द्वारा स्थापित प्रेस की नींव में या तो अंग्रेजी पत्र थे या बांग्ला, फारसी, उर्दू जैसे तत्कालीन प्रभावी भाषाओं के प्रकाशन। हिंदी, जो कि देश के बड़े भूभाग की संपर्क भाषा थी, वह कहीं पीछे छूट रही थी। उस समय हिंदी भाषी समाज को न तो अपनी बात कहने का मंच मिला था और न ही कोई ऐसा माध्यम था जो उनकी भावनाओं, समस्याओं और विचारों को सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त कर सके।
ऐसे समय में पंडित जुगुल किशोर शुक्ल का आगे आना किसी क्रांति से कम नहीं था। वे मूलतः उत्तर प्रदेश के कानपुर जनपद से थे और पेशे से एक वकील थे। उनका कार्यक्षेत्र कोलकाता में था, जो उस समय ब्रिटिश भारत की राजधानी थी और राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा पत्रकारिता का केंद्र भी।
उदंत मार्तंड की शुरुआत
30 मई, 1826 को कोलकाता से प्रकाशित हुआ ‘उदंत मार्तंड’ (अर्थात् समाचारों का सूर्य)। यह हिंदी का प्रथम समाचार पत्र था और इसे साप्ताहिक रूप में हर मंगलवार को प्रकाशित किया जाता था। जुगुल किशोर शुक्ल इसके संपादक, प्रकाशक और मुद्रक — तीनों ही थे।
उदंत मार्तंड का उद्देश्य केवल समाचार देना नहीं था, बल्कि हिंदी भाषियों को एक वैचारिक मंच प्रदान करना था। यह उन हिंदी भाषी जनों की आवाज़ बनना चाहता था जो बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों में रहते थे, परंतु संवाद और जानकारी के स्तर पर उपेक्षित थे।
इस पत्र में समाचारों के साथ-साथ सामाजिक मुद्दों, न्यायिक कार्यवाही, शासन की नीतियों और जनहित से जुड़े विषयों पर चर्चा होती थी। इसकी भाषा थी — उस समय की ‘खड़ी बोली’ हिंदी, जो ब्रजभाषा और उर्दू से अलग एक नयी शैली में ढल रही थी। यह भाषा सरल, सजीव और जनसामान्य की समझ में आने योग्य थी।

कठिनाइयाँ और चुनौतियाँ
उदंत मार्तंड का प्रकाशन एक ऐतिहासिक कार्य तो था, लेकिन इसके सामने अनेक बाधाएँ थीं। सबसे बड़ी चुनौती थी वित्तीय कठिनाई। उस समय हिंदी भाषियों की पाठकीय चेतना बहुत सीमित थी। हिंदी पढ़ने वालों की संख्या कम थी और हिंदी समाचार पत्र पढ़ने की आदत तो बिल्कुल भी नहीं थी।
दूसरी बड़ी चुनौती थी सरकारी उपेक्षा। ब्रिटिश सरकार ने न तो उदंत मार्तंड को सरकारी विज्ञापन दिए और न ही डाक की रियायतें। पत्र को डाक द्वारा पाठकों तक पहुंचाना बहुत महंगा पड़ता था। पंडित जुगुल किशोर ने कई बार सरकार से गुहार लगाई कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में पत्र भेजने के लिए रियायत दी जाए, लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई।
फलतः केवल 79 अंकों के प्रकाशन के बाद 4 दिसंबर 1827 को यह पत्र बंद करना पड़ा। लेकिन यहीं पर उदंत मार्तंड की कहानी खत्म नहीं होती, यहीं से हिंदी पत्रकारिता की यात्रा आरंभ होती है।

जुगुल किशोर शुक्ल : एक पत्रकार नहीं, युगद्रष्टा
पंडित जुगुल किशोर शुक्ल को हिंदी पत्रकारिता का जनक कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। जिस समय पत्रकारिता केवल अंग्रेजों और गिने-चुने भारतीयों तक सीमित थी, उस समय उन्होंने हिंदी में समाचार पत्र निकाल कर एक नया इतिहास रचा। वे केवल संपादक नहीं थे, वे एक विचारशील सामाजिक कर्मयोगी थे। उन्होंने यह कार्य किसी व्यवसाय या लाभ के लिए नहीं किया, बल्कि हिंदी भाषियों की चेतना को जाग्रत करने के लिए किया।
उनका यह प्रयास इतना मौलिक था कि उस युग में किसी ने उसकी कल्पना भी नहीं की थी। उनकी कलम में वह साहस था जिसने अंग्रेजी सत्ता की उदासीनता और हिंदी समाज की जड़ता — दोनों को ललकारा।

उदंत मार्तंड की ऐतिहासिक महत्ता
हालाँकि उदंत मार्तंड अल्पायु रहा, परंतु उसका महत्व अपार है। यह एक दीपक था जिसने हिंदी पत्रकारिता के तम में पहला उजास फैलाया। आज भारत में हजारों की संख्या में हिंदी समाचार पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं। लेकिन इस विराट वृक्ष का बीज वही था — जो 30 मई 1826 को कोलकाता की भूमि पर अंकुरित हुआ था।
भारत सरकार द्वारा भी 30 मई को ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, जो कि उदंत मार्तंड की स्मृति और पंडित जुगुल किशोर शुक्ल के योगदान को सम्मान देने का प्रतीक है।
उदंत मार्तंड केवल एक समाचार पत्र नहीं था, वह हिंदी भाषियों के आत्मबोध का प्रथम उद्घोष था। वह एक ऐसे युग का प्रतीक था जब कलम तलवार से अधिक धारदार बनने लगी थी।
पंडित जुगुल किशोर शुक्ल का नाम आज भी हिंदी पत्रकारिता के आकाश में ध्रुवतारे की भाँति स्थिर है, जिन्होंने बिना किसी संसाधन के, केवल अपने आत्मबल और भाषाई गौरव की भावना से एक ऐसे बीज को रोपा, जिसका वृक्ष आज विशाल बन चुका है। (साभार फेसबुक)

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